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Gajal |
प्रेम में |
माया / प्रेम |
मैं हूँ उन चंद खुशनसीबों में से एक
कि जिन्हें,
प्रेम में,
मिले हैं प्रेम पत्र |
मैं हूँ खुशनसीब
कि मुझे
प्रेम में,
लड़की ने दी है अँगूठी गिफ्ट |
प्रेम में,
लड़की ने मुझपे किये हैं अजीबोगरीब इशारें ;
कि जिन्हें याद कर गुदगुदाता हूँ मैं |
और कहने में कतराता हूँ |
प्रेम में,
वो बनाकर बहाने
आती रहती थी घर के बाहर;
सिर्फ और सिर्फ मुझे देखने |
हाँ हूँ मैं खुशनसीब कि -
प्रेम में,
लड़की ने मेंहन्दी से अपनी हथेली पर
लिखा था मेरा नाम |
हाँ, वही नाम
जो,
कुदरत ने नहीं लिखा था;
उसके नसीब में |
हाँ हूँ मैं फिर भी खुशनसीब
कि -
हर एक लड़के को तो नहीं होती नसीब |
प्रेम के लिए एक लड़की भी |
- महेश चौहान चिकलाना |
कविता |
अन्य |
मैं अगर उतार दूँ
तेरी आँखों का नशीलापन,
तेरे चेहरे की सुन्दरता,
तेरी लहराती जुल्फ,
तेरी चाल की मादकता ।
मैं अगर उतार दूँ
तेरा उभार - सौंदर्य कविता में
तो उम्र भर तड़पेंगें सारे कवि
मेरी कविता के लिये
जैसे मैं तड़प रहा हूँ...
तेरे लिये । |
कविता |
अन्य |
.....भीगी हुई.....
उस दिन तुम,
भीगी हुई,
अपनी माँ के साथ,
सिर पर पानी का मटका उठाए,
आ रही थी ।
तेरे भीगे हुए बाल,
चेहरे पर चिपके हुए से,
कितने प्यारे लग रहे थे...
भीगे हुए कपड़ो में तेरा बदन,
उफ !
मुझे सीने पर हाथ रखना पड़ा ।
उस दम तुमने मेरी तरफ,
तिरछी निगाह से देखकर,
मेरे दोस्तों मेरा,
कितना मान बढा दिया था । |
मुक्तक |
अन्य |
यूँ तो कभी - कभी उससे,हो जाती है मुलाकात भी |
थोड़ी बहुत कभी - कभी उससे,हो जाती है बात भी |
पर अब इन मुलाकातों और बातों में,तब-सी बात नहीं ,
जब उसकी याद में,आँखों में गुज़र जाती थी रात भी । |
ग़नुक |
अन्य |
----''मेरे गुम होने की रिपोर्ट"----
घर वालों को उम्मीद
कि कमाकर दूंगा
पत्नी को उम्मीद
कि प्रेम दूंगा
विभाग वालों को उम्मीद
कि ईमानदारी से करूँगा नोकरी
सब लगाए बैठे हैं उम्मीदें मुझसे
मुझसे क्यूँ नहीं पूछा जाता -
कि मेरी क्या है उम्मीदें ?
सबकी उम्मीदों पर
खरा उतरने की कोशिश में
मुझसे से 'मैं' कहीं खो गया...
कभी जाओ थाने की तरफ
तो मेरे गुम होने की
रिपोर्ट लिखवा आना...
-------- महेश चौहान चिकलाना |
कविता |
माया / प्रेम |
कैसे दी मैंने उसको अँगुठी
इतराके वो कहती होगी
सहेलियों से छुप - छुपकर
बातें मेरी करती होगी
इतराके वो कहती होगी
मोहल्ले में किसी से तो पुछती होगी
मेरा मकां , मेरी गली
सबसे छुपाकर नाम मेरा
मेहंदी में वो लिखती होगी
इतराके वो कहती होगी
नाम में मेरे अपना नाम मिलाकर
सहेलियों से पुछती होगी पहेली
सबसे जुदा वो चँचल लड़की
मोहल्ले में सबसे हसीं वो अकेली
इतराके वो कहती होगी
---- महेश चौहान चिकलाना |
कविता |
अन्य |
मुहल्ले का वो घर,
जिसका किंवाड़ अक्सर,
मुझे देखकर बंद हुआ करता था
सुना है पिछले सप्ताह,
बाबुजी ने खरीद लिया उसे..
बड़ी खुशी हुई सुनकर,
बड़ी उम्मीद लिये,
छुट्टी लेकर पहुँचा घर
शायद किंवाड़ की ओट से दिख जाए
कोई गुलाबी सलवार
या छत्त पर ही दिख जाए
घटाओं में लिपटा हुआ वो षोडषी चाँद
मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं
ना किंवाड़ बंद हुआ उसका
ना उस गली से गुज़रने पर
किसी ने जुमले ही उछाले
कितने सुकून कितनी खुशियों का
घर हुआ करता था
वो घर जिसका किंवाड़
मुझे देखकर बंद हुआ करता था
बेगाना था पर अपना-सा लगता था
आज अपना है पर अपना नहीं लगता |
कविता |
अन्य |
अखबार पढ़ने का बहुत शौक है उसे
और पढ़ने का ही नहीं, पढ़कर सुनाने का भी
अक्सर मुझे पढ़-पढ़ के सुनाती रहती है
पहले अच्छी लगती थी मुझे
ये आदत उसकी
पर अब डरने लगा हूँ
पहले जब कभी लेट पहुँचता था घर
तो गले में बाहें डाल पुछती थी
जानू ! आज बड़ी देर करदी आने में
अब कभी लेट पहुँचता हूँ घर
तो रोता हुआ पाता हूँ उसे
पुछता हूँ तो किसी पुराने बासी अखबार से
दिखा देती है कोई घटना-दुर्घटना की खबर
आजकल हादसे बहुत पढ़ती है वो
सोचता हूँ अखबार बंद करा दूँ... |
ग़नुक |
माया / प्रेम |
कुछ इस तरह करती थी वो मोहब्बत मुझे
छोटी - छोटी बातों पे लिखती थी खत मुझे
दोस्तों को नाज़ था मुझपे और मुझे उसपे
लगने लगी थी वो मेरी मेहरबां किस्मत मुझे
अकेले में सोचूँ उसे,लिखुँ उसे,मुस्कुरा दूँ
उससे ही हुई थी ये अजीब आदत मुझे
तमन्ना थी,कभी रुठूँ उससे वो मनाए मुझे
मगर हुई कहाँ उससे कभी कोई शिकायत मुझे
कानों में गूंजती है आज भी उसकी चूड़ियाँ
जीने को उकसाती बहुत उसकी चाहत मुझे |
कविता |
अन्य |
जब सुनता हूँ कि उम्र का हर पड़ाव ढलता है ।
तब मुझे मेरा यौवन बहुत खलता है ।
जब वो तुतलाते हुए कुछ बोलता है
जब वो रोने के लिये मुँह खोलता है
जब मेरा बेटा घुटनों के बल चलता है
तब मुझे मेरा यौवन बहुत खलता है ।
जब मेरी माँ बहू के ताने सुनकर बोर हो जाती है
जब वो अपनी मर्जी से हमसे अलग हो जाती है
जब कभी मेरी बूढी माँ का हाथ तवे पर जलता है
तब मुझे मेरा यौवन बहुत खलता है ।
जब रोटी के लिये कोई बच्चा रोता है
जब बचपन में कोई बचपन खोता है
जब कहीं बम धमाको में किसी का घर जलता है
तब मुझे मेरा यौवन बहुत खलता है ।
जब सुनता हूँ कि उम्र का हर पड़ाव ढलता है।
तब मुझे मेरा यौवन बहुत खलता है । |
ग़नुक |
अन्य |
मुझे मेरे हालातों से जुड़ने दो
मुझे उसी मोड़ से फिर मुड़ने दो
तुम साथ नहीं दे सकते उम्र भर
मुझे आज अकेले ही उड़ने दो
कहाँ से कहाँ पहुँचा हूँ ये मत पूछो
अभी मुझे मेरे पेट से लड़ने दो
तुम्हारे काबिल कुछ नहीं मेरे पास
ये कंबल बिछोना फुटपाथ पे सड़ने दो |
कविता |
माया / प्रेम |
घर की दहलीज पर कदम रखते ही
माँ दिख जाती
अक्सर मेरे ही कामो में उलझी हुई
कभी घर भर में बिखरे हुए
मेरे कपड़ो को समेटती हुई
कभी धोती हुई
कभी इस्त्री करती हुई
घर की दहलीज पर कदम रखते ही
बढ़ जाती है भूख
और माँ बिना पूछे ही परोस देती है थाली
घर की दहलीज पर कदम रखते ही
माँ जान जाती है -
कि मैं थका हूँ
या बीमार हूँ
माँ कितना ख्याल रखती है मेरा
और मैं मूर्ख
घर की दहलीज के बाहर कदम रखते ही
खो जाता हूँ -
उस गुलाबी सलवार वाली के ख्यालों में |
ग़नुक |
माया / प्रेम |
खिड़की की ओट से मुझको ताकती आँखें
मुझको बहुत याद आती है तेरी आँखें
भूला यारों का चेहरा, अपने भी याद नहीं
जब से मिली है तेरी आँखों से मेरी आँखें
किसी कोरे कागज - सा नज़र आता है
चाँद पे अक्सर तुझे लिखती है मेरी आँखें
न बहार से जी बहलता न जश्ने त्यौहार से
जब तक तुझको देखती नहीं मेरी आँखें |
ग़नुक |
माया / प्रेम |
बोलती हो झूठ, कहती हो मुझे प्यार नहीं ।
देखकर मुझे जुल्फ झटकना,क्या ये प्यार नहीं
आता जो दिखूं रस्ते में कभी,मोड़ मुड़ जाती हो
जाते हुए मुझे देखना , क्या ये प्यार नहीं
बताती हो सहेलियों को अक्सर मेरी बातें
बातों पे मेरी हँसना , क्या ये प्यार नहीं
दिवाना शहर में तेरा बता कौन नहीं
सताती हो बस मुझे ही,क्या ये प्यार नहीं |
कविता |
अन्य |
अर्धांगिनी !
तुम हो अर्धांगिनी !
तुम अब आ रही हो !
तुम अब आ रही हो तो वो कौन थी ?
जो पिछले सात सालों से मेरे साथ थी
जो रतजगो का आदी बना गई ,
चैन - सुकून लूट गई ,
मुहल्ले में बदनाम कर गई ,
अपना अपना कहकर
मेरे अपनों से मुझे दूर कर गई
वो कौन थी ?
खैर अगर अर्धांगिनी तुम हो
और मेरे जीवन में आ रही हो
तो इतना जानलो
मेरे पास अब कुछ भी नहीं बचा है
जिसे तुम लूट सको |
अगर फिर भी तुम आना चाहती हो
तो मेरे खाली - कोरे जीवन में ,
तुम्हारा स्वागत है | |
कविता |
माया / प्रेम |
रूक-रूक के चलती,चलते-चलते रूक रही है ।
आज माथे पर कोई नस दूख रही है ।
जिसको पकड़कर फांद लेता था मैं,
उसके घर की दीवार,
बबूल की वो डाल,
आज भी उसके घर पर झूक रही है ।
आज माथे पर कोई नस दूख रही है ।
अब भी अक्सर चौंक जाता हूँ मैं,
जब देखता हूँ कि -
उसके घर की छत्त पर,
कोई गुलाबी सलवार सुख रही है ।
आज माथे पर कोई नस दूख रही है ।
रूक-रूक के चलती,चलते-चलते रूक रही है ।
आज माथे पर कोई नस दूख रही है । |
कविता |
माया / प्रेम |
सुहानी धूप है,आँगन में,आओ बैठे हम
ठंड है बहुत,आँगन में,आओ बैठे हम
कब तक बैठोगी शॉल ओढ़े हुए
कब तक लादोगी स्वेटेर का बोझ
शॉल हटादो , स्वेटेर उतार दो
सुहानी धूप है,आँगन में,आओ बैठे हम
ठंड है बहुत,आँगन में,आओ बैठे हम
कुछ खट्टी ईमलीयां लाया हूँ
कुछ कच्चे बेर भी
सुनाऊ शादी के पहले के कुछ पुराने किस्से
सुहानी धूप है,आँगन में,आओ बैठे हम
ठंड है बहुत,आँगन में,आओ बैठे हम
पहली मुलाकात से शादी तक के
तेरी यादों के वो चन्द खुल्ले सिक्के
आओ तुम्हे गिन-गिन के लोटादुँ
सुहानी धूप है,आँगन में,आओ बैठे हम
ठंड है बहुत,आँगन में,आओ बैठे हम
-- महेश चौहान चिकलाना |
ग़नुक |
अन्य |
सुन तो ज़रा
ओ री पनिहारन
दिल की बात
है मौसम सुहाना
थोड़ा पास तो आना |
ग़नुक |
अन्य |
यार मेरी ही रही होगी कोई नादानी शायद
वरना यूँ तो खत्म ना होती ये कहानी शायद
मुहल्ले का हर एक शख्श़ था दीवाना उसका
मगर हमीं पर थी उसको बिजलियाँ गिरानी शायद
अब और गम उठाने की हिम्मत ना रही
पड़ेगी उसकी निशानियाँ अब मिटानी शायद
वो मनाए ना माने,समझाए समझे ना
अब तन्हा ही गुज़रेगी अपनी जवानी शायद
बेवफा वो ही रही हो एेसा भी नहीं "महेश"
तुम्हें ही ना आई होगी कसमें-रस्में निभानी शायद
- महेश चौहान चिकलाना |
ग़नुक |
माया / प्रेम |
सुनो,रात पूनम के कभी आसमान भी देखना
टूटता है किस तरह चाँद का गुमान भी,देखना
सीरत क्या है,ये क्या जाने सूरत पे मरने वाले
जो कभी प्यार करना,तो फिर ईमान भी देखना
बडी अनमोल होती हैं ये बेटिया साहब
जो कभी रिश्ता करना ,तो खानदान भी देखना
जब बन ही गई है वो दुल्हन किसी गैर की"महेश"
तो फिर किस लिये उसका अरमान भी देखना
- महेश चौहान चिकलाना |