Rajesh Kumar Yadav
दूरियां
जो दिल में रह रहे हैं लोग
कितनी दूर जाकर बस गए हैं लोग
जोड़ना जो चाहते थे दिल दिल से
कितने जख्म दे गए हैं लोग
हमेशा तलाश किया जिनको
कितनी दूर जाकर बस गए हैं लोग
खुद मैं भी खबर नहीं
किन किन दिशाओं में रह रहे हैं लोग
उतरती है अप्सराएं स्वर्ग से दिन-रात देखतेे हैं लोग
कपकपाती है कड़क सर्दी में कड़की से
बिना मन के देह पर देह थोपते हैं लोग
ये कैसी बस्ती कैसा राज
कैसा है आलम आज
घुट घुट के जिन्दा जी रहे हैं लोग
राजेश कुमार यादव
५/८/२०१८