Mahesh Chauhan Chiklana
कविता
घर की दहलीज पर कदम रखते ही
माँ दिख जाती
अक्सर मेरे ही कामो में उलझी हुई
कभी घर भर में बिखरे हुए
मेरे कपड़ो को समेटती हुई
कभी धोती हुई
कभी इस्त्री करती हुई
घर की दहलीज पर कदम रखते ही
बढ़ जाती है भूख
और माँ बिना पूछे ही परोस देती है थाली
घर की दहलीज पर कदम रखते ही
माँ जान जाती है -
कि मैं थका हूँ
या बीमार हूँ
माँ कितना ख्याल रखती है मेरा
और मैं मूर्ख
घर की दहलीज के बाहर कदम रखते ही
खो जाता हूँ -
उस गुलाबी सलवार वाली के ख्यालों में