Mahesh Chauhan Chiklana
कविता
रूक-रूक के चलती,चलते-चलते रूक रही है ।
आज माथे पर कोई नस दूख रही है ।
जिसको पकड़कर फांद लेता था मैं,
उसके घर की दीवार,
बबूल की वो डाल,
आज भी उसके घर पर झूक रही है ।
आज माथे पर कोई नस दूख रही है ।
अब भी अक्सर चौंक जाता हूँ मैं,
जब देखता हूँ कि -
उसके घर की छत्त पर,
कोई गुलाबी सलवार सुख रही है ।
आज माथे पर कोई नस दूख रही है ।
रूक-रूक के चलती,चलते-चलते रूक रही है ।
आज माथे पर कोई नस दूख रही है ।